Tuesday, August 4, 2009

रक्षा बंधन की सब भाई -बहनों को शुभ कामनाएँ--

रक्षा बंधन ख़ुशी के साथ -साथ मुझे उदासी भी दे जाता है.

आज के दिन मुझे अपने बड़े भैया बहुत याद आते हैं.

तीन साल पहले वे मुझे छोड़ कर चले गए.

मैं उनसे साढ़े दस साल छोटी हूँ. हम दो ही बहन- भाई थे.

तीन साल पहले तक मैं मुन्ना थी.

उनके जाने के बाद मैं अचानक सुधा बन गई.

ऐसा लगा कि बड़ी हो गई हूँ . कोई मुन्ना कहने वाला नहीं रहा.

आज मैं जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत हूँ.

उन्होंने मेरी खातिर मम्मी-पापा से बहुत डांट खाई.

मैं चंचल और चुलबुली थी, भैया धीर, गम्भीर और शांत थे.

मम्मी -पापा डाक्टर थे और वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.

और मैं पता नहीं सूरज ,चाँद, तारों में क्या ढूँढती रहती थी?

हवा में उड़ती रहती थी.

भैया भी डाक्टर थे और वे समझ गए थे कि

मैं कभी भी डाक्टर नहीं बन पाऊँगी.

और उम्र भर माँ -पा की झिड़कियाँ खाती रहूँगी.

उन्होंने मुझे वही बनाया जो मैं बनना चाहती थी.

घने वृक्ष सामान उन्होंने मुझे धूप ,बारिश, ओलों , दुःख में बचाए रखा.

ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते थे और मेरी किशोरावस्था में ही

उन्होंने कह दिया था कि मुन्ना तुम आज़ाद पंछी हो खुले

आकाश में विचरण करना , ग़ज़ल तेरे बस की नहीं.

उनकी आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात दिया.

उनके बाद तो मेरे परिवार के सात जन चले गए,

मायके में कोई बचा ही नहीं.

उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर खुश हो लेती हूँ

कि मेरे और भाई भी हैं।

पाती

बादलों के उस पार

है मेरे भाई का घर

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरा संदेसा उसके दर

कहना खड़ी है तेरी बहना

धरती के उस छोर

हाथ में लिए राखी

थाली में चन्दन, रौली, मौली

बर्फी, लड्डू

बाँध कई कलाइयों पर राखी

तेरी कलाई याद है आती

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरी पाती

कहना मेरे भाई को

खुश रहे वह अपने दर

मैं खुश हूँ अपने घर

वादा करती हूँ

नहीं रोऊँगी

तुम भी मत रोना

आज के दिन!

11 comments:

Udan Tashtari said...

भावुक कर गईं आप.

रक्षाबंधन की शुभकामनाऐं.

M VERMA said...

राखी के अवसर पर संत्रास भरी बेहतरीन रचना

पंकज सुबीर said...

मुन्‍ना दीदी, आपकी ये पोस्‍ट पीड़ा का एक गहन अध्‍याय है । जो लोग चले जाते हैं उनकी कमी कभी कोई पूरा नहीं कर सकता । सर पर से नेह की छाया हटना बहुत ही पीड़ादायी होता है । पूज्‍य भाईसाहब जहां भी होंगें वहीं से आपको देख रहे होंगें कि उनकी छुटकी सी मुन्‍ना की कलम का जलवा आज पूरा हिंदी जगत मान रहा है । आपकी सफलता ही सबसे बड़ा प्रमाण है कि आपके भाई साहब की मेहनत और तपस्‍या रंग लाई है । रक्षा बंधन के अवसर पर ये अकिंचन भाई अपनी दीदी को दुआ ही दे कसता है कि वो साहित्‍य के आकाश को छुए और चांद तारों पर उसकी दीदी का नाम लिखा हो ।

Shardula said...

"मेरे सर अपनी शरारत मंढ के तेरा मुस्कुराना
और मेरी गलतियों पे सिर झुका के डाँट खाना . . .
पंख सौ ले कर समय का हाय जैसे उड़ सा जाना
ज़िन्दगी के दिन वो छोटे और ये लंबा तराना"
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सुधा जी, विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि आपके भईया देख रहे हैं आपको, ज़रा दो पंख तो हवा में उड़ा के देखिये.
रक्षाबंधन के पावन पर्व पे आपको नमन!
सादर शार्दुला

Unknown said...

saadhu
saadhu
_________bahut khoob...
aaj mujhe bhi aapke agraj dr. dineshji ki yaad taaza ho gayi hai,
sachmuch ve jitne saral komal aur nishkalank vyakti the utne hi bade shaayar bhi the.........

maine unhen khoob padhaa hai aur khoob sunaa hai.

aaj ka din aap par zaroor bhaari hoga..lekin aap koi saadhaaran mahila nahin hai, aap toh urjaa aur utsaah ki sarita hain.....aur sarita me itnee shakti hoti hai ki apne bahaav me sab bahaa le jaati hai..

aapki bhaav poorna va marmsparshi kavita ne abhibhoot bhi kar diya aur dravit bhi...........
aapko aaj rakshaabandhan ki lakh lakh badhaaiyan....

wish you all the very best
&enjoy your tailent !

दिनेशराय द्विवेदी said...

रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!

pran sharma said...

SUDHA JEE,
RAKSHA BANDHAN KE PAVITRA AUR SHUBH
AVSAR PAR DHERON SHUBH KAMNAYEN AAPKO.

रूपसिंह चन्देल said...

सुधा जी,

बहुत ही मार्मिकता के साथ आपने अपने भइया को याद किया है. इसे पढ़कर मुझे अपनी बड़ी बहन की याद हो आयी जो मुझसे १२ वर्ष बड़ी थीं और प्रति वर्ष उनकी राखी मुझे डाक से मिलती थी. २००४ में वह नहीं रहीं . कितना कठिन होता है एक भाई या बहन के अभाव को सहना.

कविता भी बहुत पसन्द आयी.

चन्देल

Sushma Sharma said...

बहुत मार्मिक पोस्ट. क्या कुछ याद आ गया. वे दिन, वे बातें कि जैसे बचपन आँखों के सामने गुजर गया एक पल में. आपने तो रुला ही दिया. भइय्या केवल भाई ही नहीं होता. वह दोस्त-दुश्मन-पिता और न जाने क्या-क्या होता है.

Atmaram Sharma said...

सुधा जी, राखी के बहाने आपने गुजर गए एक युग को उजागर कर दिया है.

रूपसिंह चन्देल said...

सुधा जी,

मित्रों का कहना शायद ठीक है. रंग कुछ अधिक ही चटक है. इसे हल्का पीला,नीला या हरा करवा दें. शब्दसुधा को हिन्दी में देने के लिए कहेंगी और अपना पुराना चित्र जाने देंगी तो ब्लॉग खिल उठे़गा. आपको इसमें हर दिन कुछ लिखना चाहिए---- डायरी की भांति.

चन्देल