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Friday, December 3, 2010

सच कहूँ

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सच कहूँ,
चाँद- तारों की बातें 
अब नहीं सुहाती .....

वह दृश्य अदृश्य नहीं हो रहा 
उसकी चीखें कानों में गूंजती हैं रहती  |
उसके सामने पति की लाश पड़ी थी,
वह बच्चों को सीने से लगाए
बिलख रही थी ....
पति आत्महत्या कर 
बेकारी, मायूसी, निराशा से छूट गया था |

पीछे रह गई थी वह,
आर्थिक मंदी की मार सहने,
घर और कारों की नीलामी देखने |
अकेले ही बच्चों को पालने और 
पति की मौत की शर्मिंदगी झेलने |

बार -बार चिल्लाई थी वह,
कायर नहीं थे तुम 
फिर क्या हल निकाला,
तंगी और मंदी का तुमने |

आँखों में सपनों का सागर समेटे,
अमेरिका वे आए थे |
सपनों ने ही लूट लिया उन्हें 
छोड़ मंझधार में चले गए |

सुख -दुःख में साथ निभाने की 
सात फेरे ले कसमें खाई थीं |
सुख में साथ रहा और 
दुःख में नैया छोड़ गया वह |
कई भत्ते देकर
अमरीकी सरकार 
पार उतार देगी नौका उनकी |

पर पीड़ा, 
वेदना 
तन्हाई 
दर्द
उसे अकेले ही सहना है |

सच कहूँ,
प्रकृति की बातें 
फूलों की खुशबू अब नहीं भरमाती......


Friday, November 5, 2010

अद्भुत कृति हूँ मैं

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कुम्हार की
अद्भुत कृति हूँ मैं,
उसी माटी से
उसने मुझे घड़ा है,
जिस माटी में एक दिन
सब को मिट जाना है |

नन्हें से दीप का आकार दे
आँच में तपा कर
तैयार किया है मुझे
अँधेरे को भगाने |

फिर छोड़ दिया
भरे पूरे संसार में
जलने औ' जग रौशन करने |

हूँ तो नन्हा दीया
हर दीपावली पर जलता हूँ |
निस्वार्थ, त्याग, बलिदान
का पाठ पढ़ाता हूँ |
संसार में रौशनी बांटता
मिट जाता हूँ |

सुबह
मेरे आकार को
धो- पौंछ कर
सम्भाल लिया जाता है,
अगले साल जलने के लिए |
शायद यही मेरी नियति है |  


दीपावली की बहुत -बहुत बधाई ..शुभकामनाएँ

Friday, October 30, 2009

नींद चली आती है.....

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बाँट में,

अपने हिस्से का सब छोड़,

कोने में पड़ी

सूत से बुनी वह मंजी 


अपने साथ ले आई,

जो पुरानी, फालतू  समझ

फैंकने के इरादे से

वहाँ रखी थी.


बेरंग चारपाई को उठाते

बेवकूफ लगी थी मैं,

आँगन में पड़ी

बचपन और जवानी का

पालना थी वह.


नेत्रहीन मौसी ने

कितने प्यार से

सूत काता, अटेरा और

चौखटे को बुना था,

टोह- टोह कर रंगदार सूत

नमूनों में डाला था.


चौखटे को कस कर जब

चारपाई बनी,

तो हम बच्चे सब से

पहले उस पर कूदे थे.


उसी चारपाई पर मौसी संग

सट कर सोते थे,

सोने से पहले कहानियाँ सुनते 

और तारों भरे आकाश में,

मौसी के इशारे पर

सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.


और फिर अन्दर धंसी

मौसी की बंद आँखों में देखते--

मौसी को दिखता है----

तभी तो तारों की पहचान है.


हमारी मासूमियत पर वह हँस देती

और करवट बदल कर सो जाती,

चन्दन की खुश्बू  वाले उसके बदन

पर टाँगें रखते ही,

हम  नींद की आगोश में लुढ़क जाते.
 

चारपाई के फीके पड़े रंग

समय के धोबी पट्कों से

मौसी के चेहरे पर आईं

झुरियाँ सी लगते हैं.


जीवन की आपाधापी से

भाग जब भी उस

चारपाई पर लेटती  हूँ,

तो मौसी का

बदन बन वह 

मनुहार और दुलार देती है .


हाँ चन्दन के साथ अब 

बारिश, धूप में पड़े रहने

और त्यागने के दर्द की गंध

भी आती है,

पर उस बदन पर टांगे

फैलाते ही नींद चली आती है.....

Friday, October 16, 2009

मैं दीप बाँटती हूँ.....

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मैं दीप बाँटती हूँ.....

इनमें तेल है मुहब्बत का

बाती है प्यार की

और लौ है प्रेम की

रौशन करती है जो

हर अंधियारे

हृदय औ' मस्तिष्क को.


मैं दीप लेती भी हूँ...

पुराने टूटे- फूटे

नफरत,

इर्ष्या,

द्वेष के दीप,

जिनमें तेल है-

कलह- क्लेश का

बाती है वैर -विरोध की

लौ करती है जिनकी जग-अँधियारा.


हो सके तो दे दो इन दीपों को

ले लो नए दीप

प्रेम, स्नेह और अनुराग के दीप

जी हाँ मैं दीप बाँटती  हूँ ............



दीपावली की बधाई....

Friday, October 2, 2009

नेक दिल

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 राले शहर, नार्थ कैरोलाईना में स्थापित गाँधी जी की प्रतिमा



वह

नेक दिल

इन्सान था.

लोगों के लिए

भगवान था.

 

जिसने अपना

सब कुछ लुटाया,

ख़ुद को मिटाया कि

देश आज़ाद हो सके.

 

भावी पीढ़ी

सुख की साँस ले सके.

कुर्बानी उसकी रंग लाई......

देश आज़ाद हुआ,

वह कल की बात हुआ.

 

समय के साथ

जब उसका ध्यान आया.

लोगों का मन

बहुत झुंझलाया .

 

तब

झट से

किसी कंकर

पत्थर की सड़क पर

नाम लिखवाया.

चौराहे पर

बुत लगवाया.

 

विचारों,

आदर्शों को

सीधा श्मशान पहुँचाया

और

गहरे दफनाया.



सुधा ओम ढींगरा

 

Tuesday, August 18, 2009

रात भर

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रात भर

यादों को

सीने में

उतारती रही,

चाँद- तारों

को भी

चुप-चाप

निहारती रही.


शांत

वातावरण

में न

हलचल हो कहीं,

तेरा नाम

धीरे से

फुसफुसा कर

पुकारती रही.


तेरी नजरें

जब भी

मिलीं

मेरी नज़रों से,

उन क्षणों को

समेट

पलकों का सहारा

देती रही.


उदास

वीरान

उजड़े

नीड़ को,

अश्रुओं

कुछ आहों

चंद सिसकियों से

संवारती रही.


जीवन की

राहों में

छूट गए

बिछुड़ गए जो ,

मुड़-मुड़ के

उन्हें देखती

लौट आने
को

इंतज़ारती
रही.

सुधा ओम ढींगरा

Tuesday, August 4, 2009

रक्षा बंधन की सब भाई -बहनों को शुभ कामनाएँ--

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रक्षा बंधन ख़ुशी के साथ -साथ मुझे उदासी भी दे जाता है.

आज के दिन मुझे अपने बड़े भैया बहुत याद आते हैं.

तीन साल पहले वे मुझे छोड़ कर चले गए.

मैं उनसे साढ़े दस साल छोटी हूँ. हम दो ही बहन- भाई थे.

तीन साल पहले तक मैं मुन्ना थी.

उनके जाने के बाद मैं अचानक सुधा बन गई.

ऐसा लगा कि बड़ी हो गई हूँ . कोई मुन्ना कहने वाला नहीं रहा.

आज मैं जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत हूँ.

उन्होंने मेरी खातिर मम्मी-पापा से बहुत डांट खाई.

मैं चंचल और चुलबुली थी, भैया धीर, गम्भीर और शांत थे.

मम्मी -पापा डाक्टर थे और वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.

और मैं पता नहीं सूरज ,चाँद, तारों में क्या ढूँढती रहती थी?

हवा में उड़ती रहती थी.

भैया भी डाक्टर थे और वे समझ गए थे कि

मैं कभी भी डाक्टर नहीं बन पाऊँगी.

और उम्र भर माँ -पा की झिड़कियाँ खाती रहूँगी.

उन्होंने मुझे वही बनाया जो मैं बनना चाहती थी.

घने वृक्ष सामान उन्होंने मुझे धूप ,बारिश, ओलों , दुःख में बचाए रखा.

ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते थे और मेरी किशोरावस्था में ही

उन्होंने कह दिया था कि मुन्ना तुम आज़ाद पंछी हो खुले

आकाश में विचरण करना , ग़ज़ल तेरे बस की नहीं.

उनकी आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात दिया.

उनके बाद तो मेरे परिवार के सात जन चले गए,

मायके में कोई बचा ही नहीं.

उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर खुश हो लेती हूँ

कि मेरे और भाई भी हैं।

पाती

बादलों के उस पार

है मेरे भाई का घर

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरा संदेसा उसके दर

कहना खड़ी है तेरी बहना

धरती के उस छोर

हाथ में लिए राखी

थाली में चन्दन, रौली, मौली

बर्फी, लड्डू

बाँध कई कलाइयों पर राखी

तेरी कलाई याद है आती

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरी पाती

कहना मेरे भाई को

खुश रहे वह अपने दर

मैं खुश हूँ अपने घर

वादा करती हूँ

नहीं रोऊँगी

तुम भी मत रोना

आज के दिन!

Friday, July 24, 2009

खोज

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उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का विशेषांक

आज प्रैस में गया है और थोड़ी सी राहत मिली है. जिन दोस्तों
को

मेरे ब्लाग का रंग पसंद नहीं आया, उनका सन्देश
मैंने

अलबेला खत्री जी को पहुँचा दिया है।

उन्होंने ही यह ब्लाग बना कर मुझे सौंपा है।

देखती हूँ कि वह इसका क्या करते हैं?

मेरे ब्लाग पर
आने

और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने के लिए धन्यवाद!




खोज

गिरा नज़र से जो

फिर उसका कहाँ ठिकाना है;

बोझ गुनाहों का स्वयं ही उठाना है.


डार से बिछुड़ कर

पूछे कोई उड़ने वाले से;

कहाँ मज़िल उसकी, कहाँ उसे जाना है.


क्या जानें रहने वाले

सुख औ' मदहोशी के जनून में;

वीरान बस्तियों को कैसे सजाना है.


किस लिए फैला

वहशत और गरूर का धुआं;

खाली करना है मकान, जो बेगाना है.


तनातनी ने

मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में;

दिल कई बनाए नफ़रत का कारखाना है.


खोजे सुधा

अब किस जगह उस को;

इंसानियत हुई क़त्ल जहाँ उसे बैठाना है.

सुधा ओम ढींगरा

Monday, July 20, 2009

तुम्हें क्या याद आया--

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कई बार यादें बहुत तंग करती है, अगर अपने साथ छोड़ चुके हों. तो कई बार मन छोटी सी बात पर भी भारी हो जाता है. ऐसे में कुछ लिखा गया-- पेश है--

तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
हमें तो
टूटा सा दिल
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--

तुम
अकारण रो पड़े--
बारिश में भीगते
शरीरों की भीड़ में
हमें तो
बचपन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया---

तुम
अकारण रो पड़े--
दोपहर देख
ढलती उम्र की
दहलीज़ पर
हमें तो
यौवन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--

तुम
अकारण रो पड़े--
उदास समंदर किनारे
सूनी आँखों से
हमें तो
अधूरा सा
धरौंदा
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--

तुम
अकारण रो पड़े--
धुँधली आँखों से
सुलघती लकड़ियाँ देख
हमें तो
कोई
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
सुधा ओम ढींगरा