Friday, July 24, 2009

खोज

उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का विशेषांक

आज प्रैस में गया है और थोड़ी सी राहत मिली है. जिन दोस्तों
को

मेरे ब्लाग का रंग पसंद नहीं आया, उनका सन्देश
मैंने

अलबेला खत्री जी को पहुँचा दिया है।

उन्होंने ही यह ब्लाग बना कर मुझे सौंपा है।

देखती हूँ कि वह इसका क्या करते हैं?

मेरे ब्लाग पर
आने

और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने के लिए धन्यवाद!




खोज

गिरा नज़र से जो

फिर उसका कहाँ ठिकाना है;

बोझ गुनाहों का स्वयं ही उठाना है.


डार से बिछुड़ कर

पूछे कोई उड़ने वाले से;

कहाँ मज़िल उसकी, कहाँ उसे जाना है.


क्या जानें रहने वाले

सुख औ' मदहोशी के जनून में;

वीरान बस्तियों को कैसे सजाना है.


किस लिए फैला

वहशत और गरूर का धुआं;

खाली करना है मकान, जो बेगाना है.


तनातनी ने

मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में;

दिल कई बनाए नफ़रत का कारखाना है.


खोजे सुधा

अब किस जगह उस को;

इंसानियत हुई क़त्ल जहाँ उसे बैठाना है.

सुधा ओम ढींगरा

7 comments:

Unknown said...

hindi chetna k liye agrim badhaai !

jahaan tak rang badalne ka mamla hai........

jald hi ho jaayega

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

"मेरे ब्लाग का रंग पसंद नहीं आया, उनका सन्देश मैंने

अलबेला खत्री जी को पहुँचा दिया है।

उन्होंने ही यह ब्लाग बना कर मुझे सौंपा है।

देखती हूँ कि वह इसका क्या करते हैं?"

लो जी खत्री साहब! नेकी कर दरिया में डाल:)
अम्रेरिका में बैठे और यह रूसी रंग शायद कुछ पाठकों को पसंद न आया हो, पर डिज़ायन तो बडे परिश्रम से बनाया है खत्रीजी ने॥

Udan Tashtari said...

Rachna bahut sunder hai. Sath hi khushu ki baat ki ab blogwani par dikhane laga hai blog, bahut badhai.

Hindi chetna ke liye badhai.

ओम आर्य said...

bahut hi sundar rachana

pran sharma said...

kavita achchhee lagee hai.Badhaaee.

डॉ. सुधा ओम ढींगरा said...

प्रसाद जी,
क्षमा चाहती हूँ , अमेरिका के पाठकों को नहीं
भारत के पाठकों को लाल रंग चटक लगा.
उन्हें पढ़ने में असुविधा हुई.
डिजाईन तो बहुत बढ़िया है इसमें दो राय नहीं.
मैंने तो सिर्फ उनका सन्देश अलबेला भाई तक पहुँचाया है

महावीर said...

सुधा जी की एक और सुन्दर भावों से भरी हुई सुन्दर कविता.
तनातनी ने
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में;
दिल कई बनाए नफ़रत का कारखाना है.
एक बड़ा सत्य है!

खोजे सुधा
अब किस जगह उस को;
इंसानियत हुई क़त्ल जहाँ उसे बैठाना है.
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.

अलबेला जी को इतने सुन्दर डिज़ायन पर एक बार फिर बधाई.