मेरी पहली पोस्ट के बाद बहुत सी ईमेल आईं कि मैं अपने कुछ प्रियजनों को भूल गई हूँ. नहीं दोस्तों! प्रियजन प्रिय होते हैं, उन्हें कैसे भूला जा सकता है? वे मेरे ही नहीं जन -जन के प्रिय हैं, मेरे अनुज हैं और उनका स्नेह ही मेरी शक्ति है. छोटों की बारी हमेशा बाद में आती है. दोनों के बारे में दूसरी पोस्ट में ही लिखने का विचार था. दोनों बांके नौजवान हैं. अभिनव शुक्ल भाषा की मज़बूत पकड़ लिए, प्रतिभा सम्पन्न, सभ्य, सुसंस्कृत, तेजस्वी कवि है. अथर्व की बुआ बना उसने मेरे परिवार का विस्तार कर दिया है। दूसरे अनुज गजेन्द्र सोलंकी संस्कारी, ऊर्जावान, ओजस्वी कवि हैं, अभी कुंवारे हैं. भाभी ढूँढ रही हूँ. दोनों गबरू जवान हैं-हिन्दी साहित्य और मुझे इनसे बहुत आशाएं हैं. जानती हूँ दोनों की शुभकामनाएँ और स्नेह मेरे साथ है। गुरु पूर्णिमा पर मुझे एक और तेजस्वी, ओजस्वी, ऊर्जा से भरपूर, साहित्य साधक, शब्दों का जादूगर नौजवान अनुज पंकज सुबीर मिला. परिवार का और विस्तार हुआ. इनका स्नेह ही मेरी पूँजी है । आदरणीय डॉ, कमलकिशोर गोयनका, डॉ. नरेन्द्र कोहली और डॉ. प्रेम जन्मेजय के आशीर्वाद तो हमेशा मेरे साथ हैं. इनके मार्गदर्शन की तो पग-पग पर मुझे ज़रुरत रहती है।
अगली बार से कुछ अनुभव साँझे करुँगी।
तब तक के लिए......
सुधा ओम ढींगरा
Sunday, July 19, 2009
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2 comments:
आदरणीय दीदी
सादर प्रणाम
आपके शब्दों की उंगलियां थाम कर तो मेरे शब्दों ने चलाना सीखा है । आपकी कहानियों को पढ़ पढ़ कर मैंने कहानियां लिखना सीखा । अब आप ब्लाग पर नियमित लिखेंगी ये जान कर मुझे जो प्रसन्नता हुई है वो शब्दों में व्यक्त करना असंभव है । आपका आशिर्वाद यूं ही मिलता रहे सावन के महीने में और रक्षा बंधन से एक पखवाड़े पूर्व ये अनुज ये ही कामना करता है ।
आपका ही अनुज
सुबीर
भावनाओं से ओत-प्रोत, मन की व्यथा को बड़े ही सुन्दर ढंग से उजागर करती हुई सुंदर शब्दों के सहारे लिखी हुई बहुत सुन्दर रचना है . विशेषत: इन पंक्तियों में बहुत ही भावुक चित्रण है:
तुम
अकारण रो पड़े--
धुँधली आँखों से
सुलघती लकड़ियाँ देख
हमें तो
कोई
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया-
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शीर्षक 'तुम्हें क्या याद आया' देख कर मुझे अपनी ग़ज़ल का एक शेर याद आगया:
अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तन्हा, कफ़स में दम निकलता जाए है।
महावीर
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