Tuesday, September 1, 2009

कुछ अपनी कुछ पराई

बार्नस एंड नोबल पुस्तकों के स्टोर में स्थानीय अमरीकी कवियों का

एक ग्रुप इकठ्ठा होता है, इस का पता जब मुझे चला तो मैं भी वहाँ जाने

लगी.
कुछ दिन तो औपचारिकता रही, फिर शीघ्र ही उन्होंने मुझे स्वीकार

लिया. 
हर माह के तीसरे रविवार हम मिलते थे. अपनी -अपनी कविताएँ

सुनाते और फिर
उन पर चर्चा होती. मज़ेदार बात यह थी कि कई बार विषय

भी चुना जाता और अमरीकी कवि
अपने परिवेश, संस्कृति की बात कहते और
 
मुझ से उम्मीद करते कि मैं इसी परिवेश की ही बात करूँ.
मैं परिवेश तो तक़रीबन

ले आती क्योंकि यहाँ रहती हूँ पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का दमन न  छोड़ पाती.


सोच में अमरीका के साथ भारत भी उभर आता. कई बार तो वे कविता सुन उछल

पड़ते तो कई बार बहस छिड़ जाती.
उदाहरणार्थ एक बार विषय चुना गया था -

किशोरावस्था की वयः संधि. तकरीबन हरेक ने थोड़े बहुत शारीरिक परिवर्तनों का


ज़िक्र कर बोय फ्रैंड की सोच तक ला कर बात समाप्त कर दी. मैं सब संवेदनायों के साथ

परिवर्तनों को देना चाहती थी. और समय का चित्र बांधना चाहती थी, जिससे पता चले

कि कैसा महसूस होता है? मैंने कविता लिखी--  ''तलाश पहचान की". जो बहुत पसंद की

गई.
शर्त होती थी कि भाषा अलंकृत  और पेचदार नहीं होनी चाहिए, सीधे, सटीक हम

विषय को छूएँ--यह चुनौती होती थी. कितनी सफल हूँ आप के समक्ष
वह रचना प्रस्तुत है ---

तलाश पहचान की


किशोरावस्था की वयः संधि पर

कदम रखा ही था.


शारीरिक परिवर्तनों का एहसास


अभी होने ही लगा था.


पंख  लगा कर उड़ने का


मन करने लगा था.


बादलों की गर्जन


बिजली की चमक का


डर हटने लगा था.



अंगों को


बरसात में भीगने का


सुख मिलने लगा था.


दुनिया की हर शै


सुन्दर लगने लगी थी.


भीतर का उफान बहार आ


अंगडाई  लेने लगा था.


हवा पर चलने का


आभास होने लगा था.




आईने के सामने खड़े हो


खुद को निहारने का मन


करने लगा था.


बन संवर कर इठलाने को


मन मचलने लगा था.


कोई मेरी और खिंचा चला आए


तमन्ना होने लगी थी.


मन बेकाबू हो


विवेक का साथ छोड़ने लगा था.


सोच के इस बदलाव का


अनुभव होने लगा था.



माँ की चोर नज़रे पीछा


करने लगी थीं.


बिन बात के खिलखिला कर


हँसी आने लगी थी.


सहेलियों संग उन्मुक्त विचरना


लुभाने लगा था.


ऐसे में बाप के अनुशासन


की डोर कसने लगी थी.



चहुँ और एक शोर सा


होने लगा था.


लड़की सुन्दर और जवान


दिखने लगी थी.


माँ धीरे -धीरे बुदबुदा कर


समझाने लगी थी.


गलत सही की पहचान


करवाने लगी थी.


 

उसकी ज्ञान वर्धक बातें

भाषण लगने लगी थीं.


सारी दुनिया ना समझ


लगने लगी थी.


जीवन के नए रास्ते बनाने 


की चाह होने लगी थी.


स्वयं को पहचानने की


तलाश होने लगी थी.



 

इस विचार ने मेरी पुस्तक ''तलाश पहचान की'' को जन्म दिया.

ग्रुप धीरे- धीरे छोटा हो गया. कई लोग राले से नौकरी की वजह से


स्थानांतरित हो गए थे.


जब भी मौका मिलता है, बचे हुए हम कवि लोग इकट्ठे होते हैं.


अपनी -अपनी पहचान की तलाश करते हैं......

6 comments:

Unknown said...

अद्भुत
अनूठी
अभिनव
मेरी प्रिय कविताओं में से एक..................

पहले भी कई बार पढा है
आज फ़िर बाँच कर
सुखद अनुभूति हुई ......

बधाई और धन्यवाद आपको........

रूपसिंह चन्देल said...

सहज और सुन्दर कविता के लिए बधाई.

रूपसिंह चन्देल

Sushma Sharma said...

वाह, हरेक लड़की ऐसा ही सोचता है, उस उमर में. आपने कमाल की कविता लिखी. शुभकामनाएँ.

महावीर said...

पहले तो 'शब्दसुधा' के नए रूप के लिए बधाई. बहुत सुन्दर है.
'तलाश पहचान की' कविता में जो किशोरावस्था का चित्रण किया है, निस्संदेह ही सराहनीय है. यह ऐसी आयु है जो जवानी और बचपन के बीच एक सेतु कहा जा सकता है. आपने कविता में सरल भाषा में किशोरी के भाव सुन्दर शब्दों में उजागर किये हैं. इतना ही नहीं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो इन पंक्तियों में बहुत कुछ मिल जाता है:
आईने के सामने खड़े हो
खुद को निहारने का मन
करने लगा था.
बन संवर कर इठलाने को
मन मचलने लगा था.
कोई मेरी और खिंचा चला आए
तमन्ना होने लगी थी.
मन बेकाबू हो
विवेक का साथ छोड़ने लगा था.
सोच के इस बदलाव का
अनुभव होने लगा था.
आपकी नयी पुस्तक 'तलाश पहचान की' की सफलता के लिए शुभकामनायें.
महावीर शर्मा
मंथन

Atmaram Sharma said...

सहज और ईमानदार कविता के लिए बधाई और शुभकामनाएँ.

PRAN SHARMA said...

AAPKE BLOG KE NAYE RANG ROOP KEE
KYA HEE BAAT HAI! JITNEE ACHCHHEE
ABHIVYAKTI BLOG MEIN HUEE HAI UTNEE
HEE ACHCHHEE ABHIVYAKTI KAVITA MEIN
HUEE HAI.SONE PAR SUHAGA WAALEE
BAAT HAI .AAPKO AUR SHRI ALBELA
KHATREE KO "LAKH-LAKH BADHAAEEYAN.