पहचान की तलाश की बात पिछली पोस्ट में हुई थी. आज भी
उस पर कुछ लिखना चाहती हूँ. भारत में हम माँ-बाप, खानदान,
दादा, परदादा और एक भरे पूरे परिवार से जाने जाते हैं. एक
पहचान ले कर पैदा होते हैं. वहाँ पहचान की तलाश की तलब
नहीं होती. पहचान का 'सुरक्षा कवच' जन्म के समय ही पहना
दिया जाता है, फलाँ का बेटा, उस खानदान की बेटी. विदेश में
आकर हमें अपनी पहचान तलाशनी पड़ती है, एक तरह से
बनानी पड़ती है. यहाँ हमें कोई हमारे खानदान, परिवार से
नहीं जानता. हम क्या है? हमने क्या किया है ? हम क्या
कर सकते हैं ? इसी को प्रमाणित करने में उम्र बीत जाती
है. ठीक उसी तरह जैसे औरत की उम्र बीत जाती है, स्वयं
को सिद्ध करने में कि वह इन्सान है. कई बार औरत
स्वयं भी नहीं जान पाती कि वह भी एक इन्सान है, बस
माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी और प्रेमिका के दायित्व
निभाती हुई, इस दुनिया से कूच कर जाती है. मैं
साऊथ एशियंस महिलाओं का स्पोर्ट ग्रुप चलाती
हूँ. उससे जो तथ्य जान पाई हूँ कि पूरी दुनिया के
स्त्री-पुरुष 'तकरीबन' एक सी सोच रखते हैं. औरत
भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी प्रताड़ित होती है.
उम्र भर वह पहचान को तलाशती है. मेरी एक
तलाक़शुदा ताई जी और जोडी व्हाइट(तलाकशुदा
अमरीकी महिला), जिसका केस हमारे स्पोर्ट ग्रुप
में आया था, दोनों महिलाओं की सोच में मैंने इतनी
समानता पाई थी कि उस सोच से प्रेरित हो
कर एक कविता ने जन्म ले लिया था......
अनकही बात
छोड़ दिया
उस पर कुछ लिखना चाहती हूँ. भारत में हम माँ-बाप, खानदान,
दादा, परदादा और एक भरे पूरे परिवार से जाने जाते हैं. एक
पहचान ले कर पैदा होते हैं. वहाँ पहचान की तलाश की तलब
नहीं होती. पहचान का 'सुरक्षा कवच' जन्म के समय ही पहना
दिया जाता है, फलाँ का बेटा, उस खानदान की बेटी. विदेश में
आकर हमें अपनी पहचान तलाशनी पड़ती है, एक तरह से
बनानी पड़ती है. यहाँ हमें कोई हमारे खानदान, परिवार से
नहीं जानता. हम क्या है? हमने क्या किया है ? हम क्या
कर सकते हैं ? इसी को प्रमाणित करने में उम्र बीत जाती
है. ठीक उसी तरह जैसे औरत की उम्र बीत जाती है, स्वयं
को सिद्ध करने में कि वह इन्सान है. कई बार औरत
स्वयं भी नहीं जान पाती कि वह भी एक इन्सान है, बस
माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी और प्रेमिका के दायित्व
निभाती हुई, इस दुनिया से कूच कर जाती है. मैं
साऊथ एशियंस महिलाओं का स्पोर्ट ग्रुप चलाती
हूँ. उससे जो तथ्य जान पाई हूँ कि पूरी दुनिया के
स्त्री-पुरुष 'तकरीबन' एक सी सोच रखते हैं. औरत
भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी प्रताड़ित होती है.
उम्र भर वह पहचान को तलाशती है. मेरी एक
तलाक़शुदा ताई जी और जोडी व्हाइट(तलाकशुदा
अमरीकी महिला), जिसका केस हमारे स्पोर्ट ग्रुप
में आया था, दोनों महिलाओं की सोच में मैंने इतनी
समानता पाई थी कि उस सोच से प्रेरित हो
कर एक कविता ने जन्म ले लिया था......
अनकही बात
छोड़ दिया
तेरा आँगन
न लाँघी कोई और दहलीज़
न पार किया कोई और दर.
भटकी हूँ
दश्त में
तेरी यादों की रेतीली कतारों में .
लौटूंगी नहीं अब तेरे साये में.
तूने प्यार किया मुझे
स्वीकार किया मुझे
पर मार डाला मेरी ''मैं'' को.
नकार दिया मेरे अहम् को.अब दाग लगें
दामन पर जितने
मैं सह लूँगी
दुनिया जो कहे
मैं झेलूँगी
तू जो कहे मैं चुप रहूँगी.मैं अपनी लाश को
कन्धों पर उठाए
वीरानों में
दो कंधे और ढूँढूंगी
जो उसे मरघट तक पहुँचा दे---
जिसे दुनिया ने
सिर्फ औरत
और तूने
महज़ बच्चों की माँ समझा......
और तेरे समाज ने नारी को
वंश बढ़ाने का
माध्यम ही समझा,
पर उसे इन्सान किसी ने नहीं समझा. ---------------------------------------------------
कल ही लिखी थी यह रचना
अलग रंग---अलग मूड---
जाने दो
बस दामन को छू कर
गुज़र जाने दो ,
इन बहारों को फिर से
बिखर जाने दो.तपिश कैसे लगेगी
दिल को मेरे,
उलझे से बाल एक बार
बिखर जाने दो.मदमस्त पलकों को
यूँ न रखो खुला,
स्वप्न भटकते हैं
इन को घर जाने दो.यूँ छुपाओ न चेहरा
खुली रात में,
चाँद शर्माता है कुछ और
निखर जाने दो.
भीतर उठने दो न बीती
बातों का धुआं,
ये खूबसूरत पल
यूँ ही गुज़र जाने दो.